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कविता

शताब्दी का बड़ा खेल

सर्वेंद्र विक्रम


सोचा गया शताब्दी के आरंभ पर
पर्दे के साथ साथ नक्शे पर भी खेला जाए कोई बड़ा खेल

क्या प्रेम पर आधारित हो ? विरल है जीवन में
और भी कई विषय थे मसलन बच्चे नदी और स्त्रियाँ

सबके अपने तर्क थे निर्णय हुआ अंततः युद्ध के पक्ष में
पता नहीं बाध्यता थी या शेष नहीं थे विकल्प
इसकी जड़ें शताब्दियों में फैली थीं
संभव है बहुत पहले से काम चल रहा हो
चतुर विन्यास वाली पटकथा में दो सभ्यताओं के संघर्ष पर

पर्दे के आगे पीछे कुशल कारीगर सिद्ध अभिनेता
रंग-रोगन साज-बाज और कैमरे हथियारों के कारोबारी
शांति शांति चिल्लाने वाले सयाने को
बारूद बनाने वाली कंपनियों ने तमगे दिए

दर्शकों में लौटाना था आत्मविश्वास, पैदा करनी होगी माँग
नेपथ्य से पवित्र पाठ के बीच बताया जाने लगा यह साझी लड़ाई है
अपनी मान्यताओं को ही बताया गया मूल सत्य, सही रास्ता
जो नहीं मानेगा नहीं बचेगा अब वह नहीं रहेगा

खेल शुरू होने से पहले थीं अनंत उद्घोषणाएँ आकलन विशेषज्ञ चर्चाएँ
लोग जमे रहे नएपन की आशा में आख्यान और अभिनय का मेल जोरदार
बड़ा तामझाम था तय था कि खेल सचमुच बड़ा होगा

अहसास नहीं था कि सब के सब एक ही तालाब में तैर रहे हैं
बार बार खींच रहे थे पानी पर विभाजक रेखाएँ

एक ओर थोड़े से लोग जिनके पास नई से नई अवधारणाएँ
गोरे विचार बाजार धाक वाली मुद्रा और बेचने के तिकड़म हजार
दूसरी ओर दुनिया की सबसे प्राचीन बीमारी से मरते हुए लोग
पहिए को उल्टा घुमाने की जिद मध्यकालीन न्याय प्रणाली
आरंभिक दृश्यों में छिटपुट मृत्यु थी सचमुच की मृत्यु
उसके बाद दिखाए जाने लगे अनवरत चित्र मृत्यु के
उत्तेजित दर्शकों को चाहिए था असली युद्ध और इससे कुछ कम नहीं

कुछ खामोश रहे देखते रहे दूर से तमाशा कभी बुदबुदाए भर
तय नहीं था कौन किस तरफ है कब तक और किन शर्तो पर

उधर सर्द पृष्ठभूमि में झुंड में जाते पैदल लोग कंधों पर रजाइयाँ
उजाड़ और निचाट रास्ते में खो गए थे उनके वार्तालाप
मदद के लिए नहीं थे मिथक और मुहावरे

जरा सी जगह में बच्चों ने जुगाड़ लिये झूले धमाकों में बिखर गए
बमों के बाद गिराई गई रोटी आसमान से बताया गया संतुलित है कैलोरी

जिन्हें भुगतना था हर बार छूट गया था घर-बार
बेबसी और भूख बीमारी और बदबू थी
दृश्यों में कैमरों की दिलचस्पी थी
दर्शकों के लिए छोटा सा सवाल आप इसके पक्ष में हैं या नहीं

आतंक और विनाश के बाद अनगिनत कोण थे, बयान की खूबी
सिर्फ एक ही दृश्य था न कोई और दुख न घटना न त्रासदी
जहाँ जहाँ दृश्य गया उम्मीद से लबालब दर्शक साथ साथ गए
सर्वेक्षणों में पता चला दर्शकों को पसंद आए हैं हमले के अतिवास्तव दृश्य
दर्शकों को हो आया प्यार सबने किया एतबार
महानायक की मेहरबानी है कि वे लड़ रहे हैं उनकी तरफ से,

जो मारे गए घायल हुए वे न नायक थे न शहीद
उनका इस्तेमाल हुआ विज्ञापनों की तरह
अभिनेताओं को अहसास नहीं था कि वे नायक हैं या हत्यारे
दर्शक उनका हँसना देखना चाहते हैं या रोना

घात प्रतिघात और कोलाहल के बीच अभी दूर था चरम बिंदु
घटनाओं के मूल संदर्भ विस्मृति के कगार पर
दर्शक थे मंत्रमुग्ध मृत्यु उनसे दूर थी
संशयविहीन थी कथा
अभी बत्तियाँ जलनी शुरू नहीं हुई थीं
खुले नहीं थे द्वार।


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